बेटी ने मारा तो घर छोड़ा: बस के नीचे मरने पहुंचे, भाई ने फर्जी साइन से पैसे हड़पे, वृद्धाश्रम में रोज सुबह सोचते हैं- कोई लेने आएगा
76 साल के देव सिंह इसी वृद्धाश्रम में रहते हैं। वह कहते हैं- मैं ऑटो चलाता था और कब नशे की लत पड़ गई, पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे शराब ने मुझे गुलाम बना लिया। पहले हर शाम को पीता था, फिर सुबह उठते ही बोतल ढूंढता। दिन-रात नशे में रहने लगा था।
देव सिंह कहते हैं कि उनके बेटे ने कई बार कहा कि शराब छोड़ दो, पर नहीं छोड़ पाया। हर दिन घर से कहकर निकलता कि आज पी कर नहीं आऊंगा, लेकिन शाम होते-होते मेरा फिर वही हाल हो जाता।
देव सिंह के परिवार का दर्द
बेटे की शादी हुई और जब बहू घर आई तो हालात और बिगड़ गए। गुस्से में बेटे को कुछ कह देता, तो मुझे बहू के सामने मारता। एक दिन जब मेरी बेटी ने मुझ पर हाथ उठा दिया तो उस दिन तो सब कुछ बदल गया।
देव सिंह कहते हैं- 'सोच रहा था उसका बाप हूं। आखिर मेरा उस पर कोई हक नहीं रहा। उस दिन के बाद तो सब कुछ बदल गया।'
वृद्धाश्रम एक घर
दिल्ली के गोविंदपुरी के रहने वाले 71 साल के अशोक कुमार शर्मा ने कहा - 'मैं करीब 20 साल पहले दिखाई नहीं देता। पहले धुंधला दिखता था, फिर धीरे-धीरे सब अंधेरा नजर आने लगा। घर पर कुछ कर नहीं पाता था। लोगों की बातों सुन-सुनकर ऐसा लगने लगा कि परिवार पर बोझ बन गया हूं।'
अशोक कहते हैं कि जब उनकी पत्नी की मौत हुई, तो उनका घर बिक गया। मेरी बची-खुची हिम्मत भी चली गई।
मुकेश की कहानी
61 साल के मुकेश कुमार कहते हैं - 'भाई ने फर्जी साइन से मेरे पैसे हड़प लिए। बाद उसने मुझे घर से निकाल दिया।'
मुकेश कहते हैं कि उनका भाई शादी नहीं की थी। परिवार में हम दो भाइयां, तीन बहनें और उनके बच्चे रहते थे।
मुकेश बताते हैं कि जब वे ऑपरेशन हुए, तो डॉक्टर ने उन्हें मसाज थेरेपी कराई। इस दौरान पट्टियां हटाने में हल्का दर्द था। बाद में डॉक्टर ने कहा, 'तुम्हारी स्ट्रेचर पर लेटो'।
मुकेश कहते हैं कि अपनी बहनों के साथ रहने वाले दोस्त उन्हें कहते थे, - 'चलो तुम्हारे घर मौज करते हैं!' यह बातें उन्हें अच्छा लगीं। लेकिन वास्तविकता और झूठ अलग-अलग हैं।
वृद्धाश्रम की मदद
दिल्ली में अब तक मैंने तीन आश्रम बनवाए हैं। इनमें लगभग 400 लोग रहते हैं। जिन लोगों को उनका परिवार छोड़ देता है, हम उन्हें अपने परिवार का हिस्सा बनाते हैं।
देव गोस्वामी पेशे से एक बस ड्राइवर रहे हैं। वे कहते हैं - 'जब मैं बस चलाता था, तो देखता था कि सड़क पर बेसहारा लोगों की स्थिति देखकर दर्द होता। जिसके बाद यह आश्रम खोला।
इन वृद्धाश्रमों में रहने वाले लोगों को हमें घर मान लेते हैं।
76 साल के देव सिंह इसी वृद्धाश्रम में रहते हैं। वह कहते हैं- मैं ऑटो चलाता था और कब नशे की लत पड़ गई, पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे शराब ने मुझे गुलाम बना लिया। पहले हर शाम को पीता था, फिर सुबह उठते ही बोतल ढूंढता। दिन-रात नशे में रहने लगा था।
देव सिंह कहते हैं कि उनके बेटे ने कई बार कहा कि शराब छोड़ दो, पर नहीं छोड़ पाया। हर दिन घर से कहकर निकलता कि आज पी कर नहीं आऊंगा, लेकिन शाम होते-होते मेरा फिर वही हाल हो जाता।
देव सिंह के परिवार का दर्द
बेटे की शादी हुई और जब बहू घर आई तो हालात और बिगड़ गए। गुस्से में बेटे को कुछ कह देता, तो मुझे बहू के सामने मारता। एक दिन जब मेरी बेटी ने मुझ पर हाथ उठा दिया तो उस दिन तो सब कुछ बदल गया।
देव सिंह कहते हैं- 'सोच रहा था उसका बाप हूं। आखिर मेरा उस पर कोई हक नहीं रहा। उस दिन के बाद तो सब कुछ बदल गया।'
वृद्धाश्रम एक घर
दिल्ली के गोविंदपुरी के रहने वाले 71 साल के अशोक कुमार शर्मा ने कहा - 'मैं करीब 20 साल पहले दिखाई नहीं देता। पहले धुंधला दिखता था, फिर धीरे-धीरे सब अंधेरा नजर आने लगा। घर पर कुछ कर नहीं पाता था। लोगों की बातों सुन-सुनकर ऐसा लगने लगा कि परिवार पर बोझ बन गया हूं।'
अशोक कहते हैं कि जब उनकी पत्नी की मौत हुई, तो उनका घर बिक गया। मेरी बची-खुची हिम्मत भी चली गई।
मुकेश की कहानी
61 साल के मुकेश कुमार कहते हैं - 'भाई ने फर्जी साइन से मेरे पैसे हड़प लिए। बाद उसने मुझे घर से निकाल दिया।'
मुकेश कहते हैं कि उनका भाई शादी नहीं की थी। परिवार में हम दो भाइयां, तीन बहनें और उनके बच्चे रहते थे।
मुकेश बताते हैं कि जब वे ऑपरेशन हुए, तो डॉक्टर ने उन्हें मसाज थेरेपी कराई। इस दौरान पट्टियां हटाने में हल्का दर्द था। बाद में डॉक्टर ने कहा, 'तुम्हारी स्ट्रेचर पर लेटो'।
मुकेश कहते हैं कि अपनी बहनों के साथ रहने वाले दोस्त उन्हें कहते थे, - 'चलो तुम्हारे घर मौज करते हैं!' यह बातें उन्हें अच्छा लगीं। लेकिन वास्तविकता और झूठ अलग-अलग हैं।
वृद्धाश्रम की मदद
दिल्ली में अब तक मैंने तीन आश्रम बनवाए हैं। इनमें लगभग 400 लोग रहते हैं। जिन लोगों को उनका परिवार छोड़ देता है, हम उन्हें अपने परिवार का हिस्सा बनाते हैं।
देव गोस्वामी पेशे से एक बस ड्राइवर रहे हैं। वे कहते हैं - 'जब मैं बस चलाता था, तो देखता था कि सड़क पर बेसहारा लोगों की स्थिति देखकर दर्द होता। जिसके बाद यह आश्रम खोला।
इन वृद्धाश्रमों में रहने वाले लोगों को हमें घर मान लेते हैं।